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NewsnowदेशIndia का इतिहास: 18वीं से 20वीं सदी का एक सफर 

India का इतिहास: 18वीं से 20वीं सदी का एक सफर 

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और कला के क्षेत्र में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है। 

India का इतिहास समृद्ध और जटिल है, जो सदियों से विभिन्न साम्राज्यों, विद्रोहों, सामाजिक सुधारों और राष्ट्रीय आंदोलनों से आकार लेता रहा है। 18वीं शताब्दी के अंत तक, India मुगल साम्राज्य के कमजोर पड़ने के बाद कई छोटे राज्यों में विभाजित हो चुका था। 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान, India को ब्रिटिश साम्राज्य के शासन का सामना करना पड़ा, जिसने देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को नाटकीय रूप से बदल दिया। यह लेख 18वीं से 20वीं शताब्दी के दौरान India के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत करता है।

India ब्रिटिश साम्राज्य का उदय: 

18वीं शताब्दी के मध्य में, यूरोपीय व्यापारिक कंपनियां, विशेष रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, India में अपना प्रभाव बढ़ा रही थीं। कंपनी ने स्थानीय शासकों के साथ गठबंधन कर और युद्धों के माध्यम से अपना नियंत्रण स्थापित किया। 1857 का विद्रोह कंपनी के शासन के खिलाफ पहला बड़ा विद्रोह था, हालांकि इसे हिंसक रूप से दबा दिया गया था। विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने India का प्रत्यक्ष नियंत्रण ले लिया और औपनिवेशिक शासन का एक नया युग शुरू हुआ।

History of India A Journey from 18th to 20th Century
India का इतिहास: 18वीं से 20वीं सदी का एक सफर 

औपनिवेशिक शासन का प्रभाव:

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का India पर गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटिशों ने भारतीय अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन किया, रेलवे और सड़क नेटवर्क का निर्माण किया, और एक केंद्रीकृत प्रशासन स्थापित किया। हालाँकि, इन विकासों का मुख्य लाभ ब्रिटिश साम्राज्य को हुआ और भारतीयों को गरीबी और भुखमरी का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, ब्रिटिश सरकार ने अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू किया, जिसने भारतीय समाज में सांस्कृतिक परिवर्तन ला दिया।

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राष्ट्रीय आंदोलन का उदय:

19वीं सदी के अंत में, ब्रिटिश शासन के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन का उदय हुआ। इस आंदोलन में विभिन्न नेताओं और विचारधाराओं का समावेश था। दादाभाई नौरोजी और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं ने संवैधानिक सुधारों और स्वशासन की मांग की। वहीं दूसरी ओर, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की वकालत की।

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20वीं सदी का India: 

20वीं सदी भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अहिंसावादी आंदोलनों ने ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। गांधीजी के सत्याग्रह के सिद्धांत ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को वैश्विक पहचान दिलाई।

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विभाजन की त्रासदी:

हालांकि, स्वतंत्रता की प्राप्ति खुशियों के साथ-साथ विभाजन की त्रासदी लेकर भी आई। 1947 में, India का विभाजन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान का एक अलग देश बना। विभाजन के दौरान सांप्रदायिक हिंसा भड़की और लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा।

स्वतंत्र India का निर्माण: एक महाकाव्य: 

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15 अगस्त 1947 को, भारत ने ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त की और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना स्थान स्थापित किया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था, जिसने 200 वर्षों से अधिक समय तक चली गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया और एक नए राष्ट्र के निर्माण की नींव रखी। 

यह स्वतंत्रता आसानी से नहीं मिली थी। अनगिनत लोगों ने बलिदान दिया, अहिंसक प्रतिरोध प्रदर्शनों में भाग लिया, और क्रांतिकारी गतिविधियों में अपना योगदान दिया।महात्मा गांधी के नेतृत्व में, India ने अहिंसा और सविनय अवज्ञा के सिद्धांतों पर आधारित एक शक्तिशाली स्वतंत्रता आंदोलन का निर्माण किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। विभाजन की त्रासदी, सांप्रदायिक हिंसा, राजनीतिक अस्थिरता, और आर्थिक संकट – ये सभी नई सरकार के सामने बड़ी बाधाएं थीं। लेकिन इन चुनौतियों के बावजूद, India ने धीरे-धीरे प्रगति की। संविधान का निर्माण किया गया, लोकतंत्र मजबूत हुआ, और विकास की योजनाएं लागू की गईं। शिक्षा, स्वास्थ्य, और कृषि जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार किए गए। 

आज, भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और कला के क्षेत्र में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है। स्वतंत्र भारत का निर्माण एक महाकाव्य है, जो बलिदान, संघर्ष, और दृढ़ संकल्प की कहानी है। यह एक प्रेरणादायक कहानी है जो हमें सिखाती है कि एकजुट होकर हम किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं और एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

स्वतंत्र India के निर्माण में योगदान देने वाले कुछ प्रमुख व्यक्तियों और घटनाओं की सूची:

महात्मा गांधी:

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अहिंसा: गांधीजी का केंद्रीय दर्शन अहिंसा था, जिसका अर्थ है “हिंसा न करना”। उन्होंने माना कि हिंसा से कोई स्थायी समाधान नहीं मिल सकता है और अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए अहिंसक प्रतिरोध सबसे प्रभावी तरीका है।

सत्याग्रह: सत्याग्रह अहिंसक प्रतिरोध का एक दर्शन है। इसमें अन्याय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन, नागरिक अवज्ञा और सत्याग्रही द्वारा स्वयं को पीड़ित करने जैसे तरीके शामिल हैं। गांधीजी का मानना था कि सत्याग्रह से अंततः विरोधी का हृदय परिवर्तन होगा।

स्वराज: गांधीजी का स्वतंत्रता का आदर्श केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति नहीं था, बल्कि “स्वराज” था। स्वराज का अर्थ है स्वशासन, जहां भारतीय लोग अपने भाग्य के स्वामी हों।

जवाहरलाल नेहरू:

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जवाहरलाल नेहरू, भारत के प्रथम प्रधान मंत्री और वास्तुकार के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने देश को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन और कैरियर भारत के राष्ट्रीय आख्यान में गहराई से जुड़ा हुआ है।

सरदार वल्लभभाई पटेल: India के लौह पुरुष

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सरदार वल्लभभाई पटेल, जिन्हें “लौह पुरुष” के नाम से जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता और स्वतंत्र भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री थे। उन्हें भारत के एकीकरण में उनकी निर्णायक भूमिका के लिए जाना जाता है।  उन्होंने स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

डॉ. भीमराव अंबेडकर: India के संविधान निर्माता और दलित अधिकारों के चैंपियन

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डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिन्हें बाबासाहेब अंबेडकर के नाम से भी जाना जाता है, भारत के इतिहास में एक प्रभावशाली व्यक्ति थे।  वह एक विद्वान, सामाजिक सुधारक, राजनीतिक नेता और भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकारों में से एक थे।उन्होंने दलितों (अछूतों) के उत्थान और भारतीय समाज में उनकी समानता के लिए अथक प्रयास किए।

सुभाष चंद्र बोस “नेताजी” – India के स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानी

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सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें “नेताजी” के नाम से जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रेरक और विवादास्पद नेताओं में से एक थे। उन्होंने अहिंसक प्रतिरोध के गांधीवादी मार्ग से हटकर, सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने का आह्वान किया। उनके साहसिक नेतृत्व, राष्ट्रवाद और अटूट देशभक्ति ने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया।

India का विभाजन: एक राष्ट्र का खून बहता हुआ घाव

भारत का विभाजन 1947 में ब्रिटिश राज के अंत के साथ हुआ एक दर्दनाक घटना थी।  इसने ब्रिटिश भारत को दो स्वतंत्र राष्ट्रों – भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया।  यह विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था और इसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा, विस्थापन और मानव त्रास हुआ।

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विभाजन के कारण:

धार्मिक विभाजन: Indian लोगो में सदियों से हिंदू और मुसलमान समुदायों के बीच तनावपूर्ण संबंध रहे हैं। 19वीं और 20वीं शताब्दी में, धार्मिक राष्ट्रवाद का उदय हुआ, जिसने इन समुदायों के बीच विभाजन को गहरा कर दिया।

मुस्लिम लीग का उदय: 1905 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई, जिसका लक्ष्य मुसलमानों के राजनीतिक हितों को सुरक्षित करना था। लीग ने धीरे-धीरे मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग को उठाना शुरू कर दिया।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच असहमति: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया, एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की वकालत करती थी। हालांकि, मुस्लिम लीग और कांग्रेस स्वतंत्र भारत के ढांचे पर सहमत नहीं हो सके।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद की भूमिका: ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने “फूट डालो और राज करो” की नीति का पालन किया, जिसने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को बढ़ावा दिया। उन्होंने भारत छोड़ने की घोषणा करते समय विभाजन की योजना बनाई।

भारतीय संविधान: स्वतंत्र India की आधारशिला

भारतीय संविधान दुनिया के सबसे लंबे लिखित संविधानों में से एक है।  यह 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था और 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। यह संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में परिभाषित करता है।  यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है और शासन की संरचना को निर्धारित करता है।

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भारतीय संविधान के स्रोत और प्रेरणा:

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन: भारतीय संविधान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्शों और सिद्धांतों से प्रेरित था। इसने स्वतंत्रता सेनानियों की उस मांग को प्रतिबिंबित किया कि भारत एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज हो।

विदेशी संविधान: भारतीय संविधान विभिन्न विदेशी संविधानों से भी प्रेरणा लेता है, जिनमें ब्रिटिश संसदीय प्रणाली, अमेरिकी संविधान के संघीय ढांचे और आयरिश संविधान के मौलिक अधिकार शामिल हैं।

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भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं:

संघीय लेकिन एकात्मक: भारतीय संविधान को संघीय और एकात्मक दोनों माना जाता है। यह केंद्र सरकार और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन करता है। हालांकि, संविधान केंद्र सरकार को राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा बनाए रखने के लिए कुछ अतिरिक्त शक्तियां प्रदान करता है।

संसदीय प्रणाली: भारतीय संविधान एक संसदीय प्रणाली का पालन करता है। कार्यपालिका (सरकार) विधायिका (संसद) के प्रति जवाबदेह होती है। प्रधान मंत्री सरकार का प्रमुख होता है और राष्ट्रपति एक नाममात्र का प्रमुख होता है।

धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान सभी धर्मों को समान दर्जा देता है। यह राज्य को किसी भी धर्म को बढ़ावा देने या किसी के धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप करने से रोकता है।

मौलिक अधिकार: संविधान छह श्रेणियों में विभाजित 37 मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है। इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार और सं constitutional अधिकार शामिल हैं।

निदेशक सिद्धांत: संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत भी शामिल हैं। ये बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन राज्य को सामाजिक और आर्थिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।

स्वतंत्र न्यायपालिका: भारतीय संविधान एक स्वतंत्र न्यायपालिका की गारंटी देता है। न्यायपालिका का कार्य संविधान की व्याख्या करना और यह सुनिश्चित करना है कि कानून संविधान के अनुरूप हों।

संविधान में संशोधन की प्रक्रिया: भारतीय संविधान को संशोधित किया जा सकता है, लेकिन संशोधन की प्रक्रिया कठिन है। संशोधन को संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत और कुछ मामलों में राज्यों के विधानमंडलों के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है।

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पंचवर्षीय योजनाएं: स्वतंत्र India का आर्थिक विकास का खाका

भारत के स्वतंत्र होने के बाद, अर्थव्यवस्था को गति देने और आधुनिकीकरण के लिए एक ठोस रोडमैप की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने नियोजित अर्थव्यवस्था की अवधारणा को अपनाया। इस नियोजन प्रणाली के तहत, पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की गई। ये योजनाएँ केंद्र सरकार द्वारा तैयार की गई थीं और पूरे देश के लिए आर्थिक विकास का मार्गदर्शन करती थीं।

पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य:

आर्थिक विकास को गति देना: पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य उद्देश्य भारत की पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाना था। यह औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देकर, बुनियादी ढांचे का विकास करके और कृषि क्षेत्र को आधुनिक बनाने के लिए रणनीति तैयार करती थी।

रोजगार सृजन: तेजी से बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना एक प्रमुख चिंता थी। पंचवर्षीय योजनाओं का लक्ष्य विभिन्न क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना और बुनियादी ढांचे के विकास के माध्यम से रोजगार के अवसर पैदा करना था।

आत्मनिर्भरता प्राप्त करना: औपनिवेशिक शासन के बाद भारत आयात पर बहुत अधिक निर्भर था। पंचवर्षीय योजनाओं का लक्ष्य आवश्यक वस्तुओं के घरेलू उत्पादन को बढ़ाकर आत्मनिर्भरता हासिल करना था।

सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देना: आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक कल्याण को भी प्राथमिकता दी गई थी। पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और गरीबी उन्मूलन पर ध्यान देने का प्रयास किया गया।

हरित क्रांति: India में कृषि क्रांति

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हरित क्रांति, जिसे कृषि क्रांति के नाम से भी जाना जाता है, India के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह 1960 के दशक में शुरू हुआ एक आंदोलन था जिसने देश के कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। इस अवधि के दौरान, आधुनिक कृषि पद्धतियों, उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीजों और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को अपनाने से खाद्यान्न उत्पादन में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई।

हरित क्रांति से पहले का India:

स्वतंत्रता के बाद खाद्य सुरक्षा की चुनौती: 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, India को गंभीर खाद्य सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ा। देश की आबादी तेजी से बढ़ रही थी, जबकि खाद्यान्न उत्पादन स्थिर था। यह खाई आयात पर निर्भरता को बढ़ा रही थी।

पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ: उस समय, भारतीय कृषि पारंपरिक तरीकों पर निर्भर थी। किसान वर्षा पर निर्भर थे और कम उपज देने वाली फसल किस्मों का उपयोग करते थे। सिंचाई सुविधाओं की कमी और फसल रोगों के प्रकोप ने भी उत्पादकता को कम कर दिया।

हरित क्रांति के प्रमुख पहलू:

उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYVs) का बीज: हरित क्रांति का एक प्रमुख पहलू उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYVs) के बीजों का विकास और प्रसार था। इन बीजों को गेहूं, चावल, मक्का और ज्वार जैसी प्रमुख खाद्य फसलों के लिए विकसित किया गया था। HYV बीजों में पारंपरिक किस्मों की तुलना में अधिक उपज देने की क्षमता थी।

सिंचाई सुविधाओं का विस्तार: सिंचाई सुविधाओं के विस्तार पर भी जोर दिया गया। सरकार ने नहरों, नलकूपों और तालाबों के निर्माण के लिए भारी निवेश किया। इससे किसानों को सूखे की स्थिति में भी फसल उगाने में मदद मिली।

रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग: हरित क्रांति के दौरान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा। इन रसायनों ने मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और फसल रोगों और कीटों को नियंत्रित करने में मदद की।

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