बायोसिमिलर (Biosimilars) बायोलॉजिकल दवाओं के ऐसे संस्करण होते हैं जो मौजूदा स्वीकृत जैविक उत्पादों (Biological Reference Products) के समान होते हैं लेकिन उनकी सटीक प्रतिकृति नहीं होते। बायोसिमिलर, विशेष रूप से कैंसर, ऑटोइम्यून बीमारियों और अन्य जटिल चिकित्सा स्थितियों के इलाज के लिए उपयोग किए जाते हैं।
बायोसिमिलर दवाओं की लागत पारंपरिक जैविक दवाओं से कम होती है, जिससे मरीजों को सस्ता और प्रभावी उपचार मिल सकता है। हालाँकि, इनके उपयोग और स्वीकृति के लिए उचित नीतिगत दिशानिर्देशों की आवश्यकता होती है।
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Biosimilars क्या हैं?
- बायोसिमिलर दवाएं उन जैविक दवाओं के समान होती हैं, जो पहले से अनुमोदित (approved) होती हैं, लेकिन उनकी सटीक प्रतिलिपि नहीं होती।
- इन्हें जीवित कोशिकाओं और जैविक प्रक्रियाओं के माध्यम से विकसित किया जाता है।
- उदाहरण: इंसुलिन, मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ (Monoclonal Antibodies), एरिथ्रोपोइटिन (Erythropoietin) आदि।
Biosimilars बनाम जेनेरिक दवाएं
विशेषता | Biosimilars | जेनेरिक दवा |
---|---|---|
संरचना | मूल दवा से थोड़ा अलग हो सकता है | मूल दवा की सटीक प्रतिकृति |
उत्पादन | जैविक प्रक्रिया के माध्यम से | रासायनिक संश्लेषण द्वारा |
जटिलता | अत्यधिक जटिल | तुलनात्मक रूप से सरल |
अनुमोदन प्रक्रिया | कठोर परीक्षण और अध्ययन आवश्यक | तुलनात्मक रूप से सरल प्रक्रिया |
Biosimilars की आवश्यकता क्यों है?
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महंगी जैविक दवाओं का सस्ता विकल्प:
कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों की जैविक दवाएं बहुत महंगी होती हैं।
बायोसिमिलर अधिक किफायती होते हैं और बड़ी संख्या में मरीजों को इलाज की सुविधा दे सकते हैं।
स्वास्थ्य देखभाल लागत में कमी:
बायोसिमिलर के उपयोग से चिकित्सा खर्च में 30-50% तक की बचत हो सकती है।
इससे सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage) की दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है।
स्वदेशी दवा निर्माण को बढ़ावा:
भारत जैवप्रौद्योगिकी और फार्मास्युटिकल क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है।
Biosimilars के विकास से ‘मेक इन इंडिया’ और आत्मनिर्भर भारत अभियान को बल मिलेगा।
रोगियों की पहुंच बढ़ाना:
दुर्लभ और पुरानी बीमारियों के इलाज के लिए सस्ती और सुलभ दवाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं।
ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधा को सशक्त बनाया जा सकता है।
नीतिगत नुस्खे की आवश्यकता
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(i) नियामक ढांचा (Regulatory Framework) मजबूत करना
- भारत में सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (CDSCO) बायोसिमिलर के नियमन का कार्य करता है।
- बायोलॉजिक्स और बायोसिमिलर गाइडलाइन्स (2012, संशोधित 2016) के अनुसार, इन दवाओं को प्रमाणित करने के लिए कठोर परीक्षण आवश्यक हैं।
- नियामक प्रक्रिया को पारदर्शी और तेज़ बनाने की आवश्यकता है ताकि भारतीय बाजार में बायोसिमिलर तेजी से उपलब्ध हो सकें।
(ii) अनुसंधान एवं विकास (R&D) को प्रोत्साहन
- बायोसिमिलर निर्माण में उच्च तकनीक, बड़े निवेश और दीर्घकालिक शोध की आवश्यकता होती है।
- सरकार को अनुसंधान एवं विकास (R&D) के लिए विशेष फंडिंग और टैक्स छूट देनी चाहिए।
(iii) गुणवत्ता और सुरक्षा मानकों को बनाए रखना
- बायोसिमिलर की सुरक्षा और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए कठोर परीक्षण आवश्यक हैं।
- दीर्घकालिक सुरक्षा डेटा एकत्र करना और सतत निगरानी प्रणाली (Pharmacovigilance) विकसित करना अनिवार्य है।
(iv) पेटेंट और आईपीआर नीतियों का संतुलन
- मूल जैविक दवाओं के पेटेंट समाप्त होने के बाद ही बायोसिमिलर बनाए जा सकते हैं।
- पेटेंट कानूनों में सुधार कर बायोसिमिलर विकास को बढ़ावा देना आवश्यक है।
(v) जागरूकता और स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षण
- डॉक्टरों और फार्मासिस्टों को बायोसिमिलर के लाभ और सुरक्षा के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए।
- रोगियों को भी उचित जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वे बायोसिमिलर को लेकर आत्मविश्वास महसूस करें।
भारत में Biosimilars क्षेत्र की संभावनाएं
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- भारत विश्व का सबसे बड़ा जेनेरिक दवा निर्माता है और बायोसिमिलर के क्षेत्र में भी अग्रणी बन सकता है।
- भारतीय फार्मा कंपनियां जैसे बायोकॉन, डॉ. रेड्डीज, सिप्ला और ल्यूपिन पहले से बायोसिमिलर बाजार में काम कर रही हैं।
- सरकार द्वारा ‘फार्मा विजन 2020’ और ‘बायोटेक्नोलॉजी पॉलिसी’ के तहत इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- भारत में लगभग 98 से अधिक बायोसिमिलर विकसित किए जा चुके हैं, जो वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता रखते हैं।