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जानिए भारत में केवल कुछ राज्यों में ही क्यों है पब्लिक हेल्थ कानून

भारत के सिर्फ छह राज्य/केंद्रशासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां लोक स्वास्थ्य (Public Health) से जुड़े कानून लागू हैं. नौ राज्य ऐसे हैं, जो चाह रहे हैं कि वो भी अपने नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को कानूनी तौर पर (Legal Framework) तय करें और स्वास्थ्य संबंधी अधिकारों (Health Rights) और मानकों को तय करें, लेकिन आठ राज्य ऐसे भी हैं, जो इस दिशा में कोई कदम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक याचिका की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार (Central Government) ने इस तरह की जानकारी दी है, हालांकि बाकी राज्यों का इस जानकारी में ज़िक्र नहीं किया गया है.स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस तरह का डेटा सुप्रीम कोर्ट को दिया तो एक जिज्ञासा यही उठती है कि आखिर क्यों सिर्फ छह राज्यों में ही स्वास्थ्य कानून हैं, बाकी में नहीं! दूसरी बात यह भी कि आखिर यह जानकारी देने की ज़रूरत ही क्यों पड़ गई? आइए जानें क्या है पूरी स्थिति.

क्यों उठा यह सवाल?

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका में कोविड 19 के इलाज से जुड़े पहलुओं के बारे में सवाल खड़े किए गए थे. इस याचिका की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बेंच ने केंद्र के नेशनल हेल्थ बिल 2009 की तर्ज़ पर सभी राज्यों में स्वास्थ्य कानून बनाए जाने के लिए केंद्र को निर्देश दिए थे. साथ ही, केंद्र से कहा था कि राज्यों के साथ मीटिंग कर उन्हें इस दिशा में जल्दी प्रेरित किया जाए.छह राज्यों में कैसे हैं हेल्थ कानून?
कोर्ट के निर्देश पर केंद्र ने जो जवाब दिया, उसके मुताबिक आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गोवा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और असम राज्य ऐसे हैं, जहां लोक स्वास्थ्य को लेकर कानूनी फ्रेमवर्क है. हालांकि इनकी स्थिति पर चर्चा ज़रूर की जाना चाहिए क्योंकि मध्य प्रदेश में इस बारे में जो कानून है, वो 1949 का है यानी देश के संविधान के बनने से और मध्य प्रदेश की स्थापना से भी पहले का.

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दूसरी तरफ, आंध्र प्रदेश में यह कानून 1939 से लागू हुआ था, जिसे समय समय पर संशोधित किया जाता रहा है. गोवा में पब्लिक हेल्थ एक्ट 1985 में बना था और उत्तर प्रदेश में तो इसी साल जब कोरोना वायरस महामारी के रूप में फैला, तभी स्वास्थ्य संबंधी कानूनी प्रक्रिया पूरी हुई.

अन्य राज्यों के हालात?
कर्नाटक, पंजाब, सिक्किम, ओडिशा, मणिपुर, झारखंड, मेघालय, महाराष्ट्र और दादर नागर हवेली व दमन दीव जल्द ही स्वास्थ्य संबंधी कानून लागू करने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसा केंद्र सरकार के शपथ पत्र में दावा किया गया है. दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल, चंडीगढ़, जम्मू व कश्मीर, उत्तराखंड, मिज़ोरम, नागलैंड, हरियाणा और अंडमान निकोबार द्वीप समूह जैसे राज्यों/यूटी का इस बारे में कोई प्लान नहीं है.

हालांकि, नागालैंड और हरियाणा कह चुके हैं कि वो केंद्र सरकार के एक्ट को ही राज्य में लागू करने जा रहे हैं. लेकिन केंद्र सरकार का शपथ पत्र इस विषय पर बाकी राज्यों की स्थिति साफ नहीं करता.

क्या कारण हैं?
सिर्फ छह राज्यों में हेल्थ लॉ होने के पीछे बड़ा कारण तो यही है कि स्वास्थ्य राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय है इसलिए उसे ही एक व्यवस्था बनानी होती है. इसमें केंद्र को खास दखल नहीं होता. इसके बावजूद केंद्र सरकार ने 1955 और 1987 में दो बार कोशिश की थी कि सभी राज्य अपने स्तर पर एक आदर्श पब्लिक हेल्थ एक्ट का कॉंसेप्ट तैयार करें.

लेकिन, केंद्र के ये दोनों ही प्रयास नाकाम साबित हुए. इस बारे में राज्य सरकारों के रुचि न लेने के चलते साल 2009 में केंद्र ने ही नेशनल हेल्थ बिल के तहत एक मानक व्यवस्था देने का रवैया अपनाया.

अंतत: यह समझना चाहिए कि स्वास्थ्य समानता और न्याय की दिशा में हेल्थकेयर सेवाओं से जुड़े कानूनी प्रावधान होना ज़रूरी है. इस विषय पर द प्रिंट की रिपोर्ट में यह भी साफ कहा गया है कि कई फैसलों में सुप्रीम कोर्ट साफ कह चुका है कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत हेल्थकेयर मूलभूत अधिकार है.

कोविड 19 को लेकर चर्चा में स्वास्थ्य कानूनों के मुद्दे पर याचिका दायर करने वाले सचिन जैन के हवाले से लिखा गया है कि केंद्र ने यह तो बताया कि महामारी के लिए उसने डिसास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 के प्रावधानों का सहारा लिया, लेकिन कोर्ट को यह नहीं बताया गया कि किस तरह. बहरहाल, कोर्ट की कार्यवाही और पूरे देश की स्थितियों के बाद यह साफ हो जाता है कि राज्यों में हेल्थ लॉ की कमी कितनी खली है और इसे अनदेखा किया जाना कितना महंगा पड़ा.

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