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Farmers Protest: किसान को चारों दिशाओं से घेरने वाले हैं ये कानून, योगेंद्र यादव

सरकार अभी भी पुराने खेल में है। आंदोलनकारियों को लड़ा दिया जाए, बहका दिया जाए या फिर थका दिया जाए। सरकार इसी में व्यस्त है। कभी वह कमिटी की बात करती है तो कभी कुछ और। किसान चाहते हैं कि सरकार अहंकार छोड़कर उन मुद्दों पर बात करे, जिनसे वे चिंतित हैं।

(News Source NBT)

कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलित (Farmers Protest) हैं। उन्हें लगता है कि तीन कृषि कानून उनका भविष्य बर्बाद कर देंगे। सरकार का कहना है कि नए कानून से कृषि का ढांचा बदलेगा और किसानों की स्थिति में भी सुधार होगा। आखिर इन तीन कानूनों से किसानों को क्या दिक्कतें हैं जो सरकार नहीं समझ पा रही? इस बारे में किसान आंदोलन में अहम भूमिका निभा रहे योगेंद्र यादव से बातचीत के मुख्य अंश:

सरकार और किसानों के बीच बातचीत के कई दौर हो चुके हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल रहा। आखिर ये बातचीत इतनी खिंच क्यों रही है?

क्योंकि बातचीत हो ही नहीं रही। सरकार मन बनाकर बैठी है कि वह किसानों की जरूरत के अलावा बाकी सभी बातें मान लेगी। किसान तीन कृषि कानूनों को रद्द करने से कम पर तैयार नहीं हैं। सरकार इन कानूनों पर बात करने को तैयार नहीं है। सरकार अभी भी पुराने खेल में है। आंदोलनकारियों को लड़ा दिया जाए, बहका दिया जाए या फिर थका दिया जाए। सरकार इसी में व्यस्त है। कभी वह कमिटी की बात करती है तो कभी कुछ और। किसान चाहते हैं कि सरकार अहंकार छोड़कर उन मुद्दों पर बात करे, जिनसे वे चिंतित हैं।

बातचीत में आपको क्यों नहीं शामिल किया गया?

इसका जवाब तो अमित शाह दे सकते हैं जिन्होंने खुद फोन करके किसान नेताओं से कहा कि बाकी सब तो आ सकते हैं लेकिन योगेंद्र यादव को बातचीत के लिए न लाएं। अमित शाह को शायद लगा कि अगर योगेंद्र यादव नहीं होंगे तो किसानों की बात मजबूती से नहीं रखी जा सकेगी। सरकार की चालाकियों को किसान समझ नहीं पाएंगे। लेकिन अब वे जमाने बीत गए। अब किसान नेता मजबूत हैं।

क्या आपको लग रहा है कि कोई बीच का रास्ता निकल सकता है?

हर बात में तो बीच का रास्ता नहीं निकल सकता। मान लीजिए पत्रकारों से कहा जाए कि वे रोज ऑफिस जाने से पहले थाने में हाजिरी लगाएं। उसका विरोध हो और फिर सरकार कहे कि बीच का रास्ता ये है कि अब सप्ताह में सभी दिन की बजाय सिर्फ तीन दिन हाजिरी लगाएं तो क्या यह बीच का रास्ता उचित होगा? वही स्थिति इस आंदोलन की भी है। सरकार कथित तौर पर एक सौगात किसान के मत्थे मढ़ना चाहती है लेकिन किसान उसे लेने से मना करता है तो उसमें किसान कहां गलत है? यह सही है कि किसान पराली कानून पर बात कर सकता है। एमएसपी को कैसे और बेहतर किया जाए, इस पर भी बात हो सकती है लेकिन तीन कृषि कानूनों पर कोई समझौता नहीं हो सकता। वे तो सरकार को वापस लेने ही होंगे।

लेकिन कानून रद्द करने के लिए भी तो सरकार को संसद जाना होगा। इसमें वक्त लगेगा…

यह सरकार तो अध्यादेश पर चल रही है। इस मामले में भी अध्यादेश ले आए और इन कानूनों को रद्द कर दे। या चाहे तो संसद का आपात सत्र भी बुला सकती है।

अगर कृषि कानून रद्द करने के लिए सरकार नहीं मानती तो क्या ये आंदोलन इसी तरह दिल्ली के बॉर्डर पर चलता रहेगा या फिर इसे कोई और रूप देने की भी किसानों की तैयारी है?

किसानों का तो राष्ट्रव्यापी आंदोलन चल रहा है। आगे भी चलता रहेगा। किसान सर्दी में दिल्ली की सीमाओं पर मोर्चा बनाकर बैठा है तो उसकी वजह सरकार ही है। बातचीत के कई दौर के बाद अब सरकार कह रही है कि कृषि कानूनों पर हम सोचना शुरू करते हैं। सरकार ने पहले क्यों नहीं इस मांग पर सोचा? उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार किसानों की इस मांग को स्वीकार करेगी और ये कानून रद्द करेगी।

इस तरह के आंदोलन लंबा चल जाएं तो बिखराव की आशंका भी पनपती है। क्या आपको भी ऐसा लगता है?

सरकार ने प्रयास किए हैं लेकिन सफल नहीं हुई। डराने, थकाने, लड़ाने के कई प्रयास हुए। राकेश टिकैत से अलग से बात करने की कोशिश की लेकिन अगले दिन वे किसानों के साथ ही आ गए। अब जितनी देर हो रही है, आंदोलन और मजबूत हो रहा है। किसानों की तादाद बढ़ रही है।

इन तीन कृषि कानूनों में ऐसा क्या है कि किसान उन कानूनों को रद्द करने से कम पर तैयार ही नहीं हो रहे?

ये तीन कानून किसानों को चार दिशाओं से घेरने वाले हैं। समझ लीजिए कि सरकार पुरानी कृषि मंडी बंद करना चाहती है। ये टूटे छप्पर वाली है और सरकार कह रही है कि ये टूटा छप्पर हटा लेंगे तो किसान को नीला सुंदर आसमान दिखेगा। सच ये है कि अगर पुरानी मंडी के सामने प्राइवेट कंपनी की नई मंडी आई तो एक दो बरस में पुरानी मंडी बैठ जाएगी और फिर किसान को प्राइवेट मंडी पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। इसी तरह दूसरा कानून कॉन्ट्रैक्ट का है, जिससे किसान बंधुआ मजदूर बन जाएगा और तीसरा आवश्यक वस्तु वाले कानून के मामले में किसान की फसल के दाम गिर जाएंगे।

अगर हम ये मान लें कि ये तीनों कृषि कानून किसानों के हित में नहीं हैं तो भी क्या किसानों को उनके मौजूदा हाल पर छोड़ देना ठीक रहेगा? क्यों न कृषि में निवेश बढ़े, पूंजीपति पैसा लगाएं और कृषि का आधारभूत ढांचा मजबूत हो? इसमें एतराज क्या है?

आपकी बात सही है कि कृषि आधारित ढांचा मजबूत हो लेकिन इसके लिए प्राइवेट सेक्टर क्यों, सरकार खुद क्यों नहीं निवेश करती? सरकार की कोशिश ये है कि कृषि को प्राइवेट सेक्टर के हवाले करके अपने हाथ झाड़ ले। आज की सचाई यह है कि हमारी कृषि नीति ही किसान विरोधी है। अब तक जो सरकारें आईं, वे सब किसान विरोधी रही हैं। हमारी नीति कृषि केंद्रित तो है लेकिन किसान केंद्रित नहीं। कितनी उपज हो, कितना निर्यात हो, इस पर बात होती है लेकिन किसान को क्या मिलना चाहिए और क्या मिल रहा है, इस पर सरकार बात नहीं करती। कृषि में आमूचल परवर्तन के लिए सरकार खुद कृषि क्षेत्र में निवेश करे। खेती की इनपुट लागत कम करने के तरीके अपनाए जाएं। किसानों को कृषि जोखिम से बचाने के लिए योजना लाई जाए। वैसी नहीं, जो कृषि बीमा की योजना है और फेल हो चुकी है।

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